दशलक्षण महा पर्व ...
यह पर्व वैसे तो जन-जन का पर्व है.. पर अब जाने क्यों सिमटकर जैन मात्र तक ही रह गया..
अब, खैर जो भी कारण हो पर हमने यह पर्व बहुत उत्साह से मनाया. पर मन कुछ दुखी तब हो जाता था... जब लोग इसे सही ढंग से समझे बिना और पर्वो की तरह बिना कुछ सोचे समझे मनाये जाते है..मै.. मै सिर्फ यह कहना चाहता हु या कहने की हिम्मत कर रहा हु कि यह पर्व मै यानि आत्मा से रिलेटिड है.. और हम मानते शरीर के स्तर पर है... पर्व हमारे लिए है छुटने वाले शरीर के लिए नहीं...
और हा यह है भी आत्मा का धर्म फिर शरीर के स्तर तक ही क्यों... हा शरीर साधन जरुर है पर साध्य तो आत्मा है ... तो उसके लिए हमने क्या किया..? क्या कहा... उपवास, व्रत, प्रवचन सुने, पूजा की ...
और ...?
पर आत्मा या मन की विशुधि कितनी हुई इस पर ध्यान कितना गया...
जबके सोचना यही से शुरू होता है जहा शायद हम पहुचते ही नहीं...
" हर बार हमें यह सोचकर हसी आई ..
जाना है हमने सबको खुदको न जान पाय "
भाई वाह धर्म करने चले है... और धर्म किसे कहते है.. यह खबर ही नहीं... आश्चर्य तो इस बात का है कि हमारे पास धर्म करने का समय तो है..पर.. धर्म को समझने का समय नहीं है... हम धर्म करना तो चाहते है पर उसे समझना नहीं चाहते...
खैर... मै तो मौज मै हु...
और आप सबको उत्तम क्षमा कहना चाहता हु... सो मेरे प्रति सब क्षमा धारण करे इस भावना के साथ मै आपसे जल्दी ही फिर मिलेगा...
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